मोहन सिंह काशी के उस कालखंड को देखना -समझना यहां तक कल्पना करना भी सचमुच कितना रोमांचक और प्रेरणास्पद है – जब महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज तन्त्र साधना, समाजवाद के भारतीय संस्करण के प्रणेता आचार्य नरेंद्र देव , साहित्य के क्षेत्र में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और इतिहास मनीषी वासुदेवशरण अग्रवाल अपने अलग – अलग विघाओं में सक्रिय और साधनारत रहे होंगे। इस चतुषटयी के एक महनीय आचार्य को स्मरण का यह एक शुभ अवसर है। सुविख्यात विद्वान पंडित गोपीनाथ कविराज का जन्म 7 सितंबर 1887 को ढाका में हुआ था। काशी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में तंत्रागम विभाग की स्थापना कर उन्होंने तंत्रगाम के रहस्यों को तो उद्घाटित किया ही, एक तरह से पूरी दुनिया में तंत्रविद्या को पहचान दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे काशी विद्यापीठ में आचार्य नरेंद्रदेव के सहपाठी भी रहे है। भारतीय धर्म और दर्शन के बहुपठित विद्वान तो वे थे ही। ईसाई धर्म और इस्लाम तथा सूफी रहस्यवाद, बाइबिल और कुरान में उनकी विशेषज्ञता चमत्कृत वाली थी। वे आमतौर पर धोती -कुर्ता पहनते थे। पर अपने अध्ययन कक्ष में अक्सर वे नंगे बदन रहते थे। उनके यहां दो तरह के लोग अक्सर आते थे। एक जिज्ञासु और दूसरे शोधार्थी। जो भी आता था, उनके यहां जमीन पर बैठकर ही बातचीत होती थी। उनके यहां अंग्रेजी -संस्कृत दीक्षित बड़े-बड़े विद्वानों और प्रोफेसर का जमावड़ा लगा रहा था। गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल वेनिस की विद्वता के प्रति उनकी अपार श्रद्धा और आस्था थी। डॉ वेनिस भारतीय दर्शन और अभिलेख शास्त्र के उच्च श्रेणी के विद्वान थे। उनके संरक्षण में पंडित गोपीनाथ कविराज ने अपना अध्ययन कार्य प्रारंभ किया। सन् 1918 में पंडित गोपीनाथ कविराज ने सिद्ध तांत्रिक और दार्शनिक स्वामी विशुद्धानंद से दीक्षा ग्रहण किया। तत्पश्चात तंत्र साधना को ही अपनी ज्ञान साधना और अनुसंधान का विषय बनाकर न सिर्फ उसे आगे बढ़ाया बल्कि उसे विकसित कर सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा दिया। एम ए की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उन्हें दो जगह -लाहौर कलेज और अजमेर के मेयो कॉलेज से प्रिंसिपल पद स्वीकार करने का प्रस्ताव मिला। पर डॉक्टर वेनिस के सुझाव पर गोपीनाथ कविराज जी ने यह दोनों प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इस दौरान गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के पुस्तकालय का नया भवन जो सरस्वती भवन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, बनकर तैयार हुआ। डॉ वेनिस ने अधीक्षक पद के लिए गोपीनाथ कविराज को पहला फेलो चुना। आज भी सरस्वती भवन के अभिलेखागार में देश के अनेक जगहों से आयी लाखों पांडुलिपियों सुरक्षित है। जिसमें प्रमुख रप से स्वर्णाक्षरों में लिखी रासपंचाध्यायी भी संग्रहित है।
पंडित गोपीनाथ कविराज के अलौकिक प्रतिभा का परिचय सुपरिचित पुरातत्ववेत्ता डी. आर. भंडारकर को उस वक्त मिला, जब वे पंडित गोपीनाथ कविराज से अनेक पुस्तक बार-बार लाने का आदेश दे रहे थे। एक तरह से डॉक्टर भंडारकर पंडित गोपीनाथ कविराज पर अपनी विद्वत्ता का धौंस जमाना चाहते थे। यह घटना सन् 1920 के आसपास की है। डाक्टर भंडारकर समझते थे कि -यह पुस्तक दिखाने वाला आदमी कोई साधारण आदमी होगा। पर उन्हें आश्चर्य तब हुआ, जब पंडित गोपीनाथ कविराज ने बड़े ही विनम्रता से कहा कि भंडारकर साहब – आपके लिखे का मैंने अध्ययन किया है, परन्तु उनके बहुत से अंशों में विसंगतियां दृष्टिगोचर हो रही हैं। मेरी बहुत सी शंकाएं हैं,क्या आप उनका निराकरण करने की कृपा करेंगे? सचमुच वे विसंगतिया सही थी और अशुद्धियां वास्तविक थी। फिर भंडारकर साहब ने बड़ी विनम्रता से कहा- कविराज महाशय मुझे तो इन लेखों पर अभिमान था, कि ये तथ्यपूर्ण है।अब मैं अपने अन्य लेखों में इनका यथाशक्ति निवारण करूंगा। यह है काशी की वैदुष्य परंपरा। यहां सब का अभिमान चाहे जैसा हों ,चूर-चूर हो ही जाता हैं।
काशी के सन्दर्भ में एक आम धारणा के निवारण प्रसंग भी उल्लेखनीय है। आम लोगों की यह आस्था है कि काशी में मृत्यु होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।हालांकि काशी के ही एक दूसरे संत कबीर ने इस अवधारणा को एक तरह से चुनौती देते हुए काशी छोड़कर मगहर में मृत्यु को प्राप्त हुए। गोपीनाथ कविराज ने -काशी में मृत्यु और मुक्ति; नामक अपने एक लेख में यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि क्यों काशी में मृत्यु से मोक्ष की प्राप्ति संभव होती है। सवाल है कि क्या साधारण जनों को भी काशी में मृत्यु के बाद ऊर्ध्वगति प्राप्त होती है अथवा नहीं? पंडित गोपीनाथ गोपीनाथ कविराज का कहना है कि योगियों और योगाभ्यासियों के लिए इस संशय को दूर करना कोई कठिन कार्य नहीं है। उनका कहना है कि जैसे पका हुआ फल पक जाने के बाद जमीन पर गिर जाता है, ठीक उसी तरह प्रारब्ध कर्म का भोग पूरा होने पर सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर से अलग हो जाता है। नित्य योगाभ्यासी अपने योग बल से अपने जीवन काल में अन्नमयकोश कोष से सूक्ष्म देह को पृथक कर बाहर निकल सकते हैं। शास्त्रों में भी लिखा है कि काशी पृथ्वी के अन्तर्गत नहीं है। इसका असली तात्पर्य है कि दूसरे- दूसरे स्थान में जैसे पार्थिव -आकर्षण या मध्याकर्षण स्थूल देश से पृथक हुए लिंग को नीचे की ओर खींचते हैं, काशी में इसके विपरीत ऊर्ध्व आकर्षण, लिंग को ऊर्ध्व दिशा में आकर्षित करता है। स्थूल शरीर का संबंध टूटने के साथ ही साथ ऐसा दिखने लगता है। जिस तरह से अध: आकर्षण अज्ञान का कार्य है, उसी तरह ऊर्ध्व आकर्षण ज्ञान का कार्य है। काशी में मृत्यु से लिंग -देह एक प्रकार से ऊर्ध्वगतिशील अवस्था को प्राप्त होता है, इसलिए काशी की श्रेष्ठज्ञान क्षेत्र के रूपमें पूजा होती है।और इसलिए शास्त्रों में भी – मरणं यत्र मंगलम ् ; कहकर काशी की भूरि -भूरि प्रशंसा की गई है।
पंडित गोपीनाथ कविराज के आध्यात्मिक चिंतन में जिन दो महापुरुषों के योगदान की चर्चा उल्लेखनीय हैं, उनमें एक महापुरुष का नाम हैं डॉक्टर बृजेंद्र नाथ सील और दूसरे महापुरुष हैं शिवराम किंकर योगत्र्यानन्दजी। डॉ बृजेंद्र नाथ सील से भेंट होने के पंडित गोपीनाथ कविराज की आध्यात्मिक चेतना को एक नयी दिशा मिलती है। योगत्र्यानंद जी महाराज के संपर्क में आने के बाद पंडित गोपीनाथ कविराज धार्मिक साधना की तात्विक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं। उन दिनों संजीवनी पत्रिका में महर्षि अरविंद का – कारा काहिनी नामक लेख छपा था, जिसमें महर्षि अरविंद ने कारागार में वासुदेव दर्शन का उल्लेख किया है। बृजेंद्र नाथ सील से पंडित गोपीनाथ कविराज ने प्रश्न किया कि अगर श्री कृष्ण को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं, तब उनका अरविंद बाबू के सामने उपस्थित होना तथा उपदेश देने की घटना क्यों कर सत्य हो सकती है? जवाब में बृजेंद्र सील ने कहा कि- कृष्ण पृथ्वी पर रहे हो या नहीं? उसे कृष्ण दर्शन का क्या संबंध? पृथ्वी पर अवतरित होकर शरीर धारण न करते हुए भी उनका आत्मा दर्शन दे सकती है। ऐतिहासिक कृष्ण एवं तात्विक कृष्ण का पृथक अस्तित्व नितांत असंभव है।उनके प्रति जैसी भावना होगी तदरूप प्राप्त हो जाएंगे। यह तथ्य है कि ऐतिहासिकता से उसका कोई संबंध नहीं है। पंडित गोपीनाथ कविराज स्वयं मानते हैं कि भगवान के मंगलमय विधान में कुछ भी अशुभ नहीं है। उचित रीति से भोग करने पर भी हम यह जान सकेंगे कि भोग भी मंगलमय ही है। यह अलग बात है कि कुछ लोगों के लिए जीवन का सुख केवल भोग है। फिर सवाल उठता है कि त्याग और भोग को एक साथ कैसे एक साथ साधा जा जा सकता है? भारतीय शास्त्र में तो कहा गया है – नास्ति त्याग समं सुखं। इसलिए लिए त्याग और भोग को एक सूत्र में नहीं पिरोया जा सकता है। अब काशी में न ऐसे विद्वान रहे न ऐसे जिज्ञासु जो ऐसे सवालों का समाधान प्रस्तुत कर सकें। फिर भी तीन लोक से न्यारी काशी की वैदुष्य परंपरा की महिमा अपरंपार।