
डॉ.महेन्द्र यादव की पाती थोड़ी जज़्बाती
पुण्यतिथि पर आदरांजलि
कुछ लोग होते हैं जो ज़िंदगी से लड़ते हैं, कुछ उससे समझौता कर लेते हैं,
और कुछ — बस तलाशते रहते हैं।
विनोद खन्ना उन्हीं विरलों में से एक थे — एक भटकी हुई, बेचैन आत्मा, जो हर बार शिखर पर पहुँचने के करीब आकर उसे छोड़ देती थी।
जैसे सफलता से बड़ा कोई सपना हो उनके भीतर।
पाकिस्तान के पेशावर में जन्मे, विभाजन के बाद भारत आए, एक संपन्न व्यापारी परिवार के बेटे — जिनके पास सब कुछ था, मगर दिल कहीं और था।
व्यापार की राह से मुँह मोड़ा और फिल्मों की तरफ बढ़े।
1968 में ‘मन का मीत’ से खलनायक बने और फिर नायकत्व तक जा पहुँचे।
राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र जैसे सितारों की कतार में विनोद खन्ना का नाम भी चमकने लगा।
इतना ही नहीं, 70 और 80 के दशक के मोड़ पर, एक समय ऐसा भी आया जब विनोद खन्ना हिंदी सिनेमा के सिरमौर अमिताभ बच्चन को सीधी टक्कर देने लगे।
यहाँ तक कि कुछ फिल्मों में उनकी लोकप्रियता अमिताभ पर भारी पड़ने लगी थी।
सिनेमा हॉलों के बाहर उनके पोस्टर सबसे ऊपर लगते थे।
प्रोड्यूसर उन्हें लेकर बड़ी फिल्में प्लान कर रहे थे।
वह हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सबसे चमकते सितारे बनने की दहलीज पर खड़े थे।
करियर अपने स्वर्णिम दौर में था, शिखर पर पहुँचने को बस एक कदम बाकी था —
लेकिन तभी उन्होंने सब कुछ छोड़कर ओशो के आश्रम की राह पकड़ ली।
जहाँ उन्होंने जूठे बर्तन धोए, बागवानी की, और खुद को मिटाने की साधना में लग गए।
आश्रम में भी, जब साधना के चरम पर पहुँचने ही वाले थे,
विनोद खन्ना फिर पलटे — और लौट आए फ़िल्मों की चकाचौंध में।
‘इंसाफ’ से वापसी की और फिर से सफलता की ऊँचाइयाँ चढ़ने लगे।
मगर उनकी आत्मा को शायद किसी मंजिल पर ठहरना लिखा ही नहीं था।
फिल्मों का संसार भी छोड़ा और राजनीति की पथरीली गलियों में उतर आए।
गुरदासपुर से सांसद बने, मंत्री बने, सत्ता के शिखर पर पहुँचने का अवसर मिला —
परंतु यहाँ भी, जब शिखर उनके सिर झुकाने को तैयार था,
उनकी आत्मा फिर किसी अनदेखी राह पर भटक गई।
और फिर एक दिन, इस जीवन से भी ऊबकर, वे निकल पड़े एक और यात्रा पर —
एक ऐसी यात्रा जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता।
विनोद खन्ना का जीवन एक जीवित उदाहरण है —
कि कुछ आत्माएँ इतनी विशाल होती हैं कि एक क्षेत्र का शिखर उन्हें छोटा लगने लगता है।
वे हर बार उस ऊँचाई पर पहुँचने से ठीक पहले रुक जाती हैं —
क्योंकि उनकी तलाश किसी एक मंजिल की नहीं, किसी अनंत यात्रा की होती है।
27 अप्रैल उनकी पुण्यतिथि पर,
जब हम उन्हें याद करते हैं, तो भीतर कहीं एक हूक उठती है —
कि दुनिया ने एक अद्भुत अभिनेता ही नहीं खोया,
बल्कि एक अनंत यात्री भी खो दिया,
जो आखिरी साँस तक किसी अनदेखी, अनजानी ज़िंदगी की तलाश में था।
मरने वाला कोई ज़िंदगी चाहता हो जैसे।
—
वो मुस्कुराते रहे, भीड़ से दूर,
हर शोर से परे, हर तालियों के उस पार।
शिखर उनके कदमों में थे,
मगर उनकी आँखें — अनंत आकाश में।
न रुकने का जुनून, न जीतने की लालसा,
बस चलते जाना था,
कहीं उस ओर,
जहाँ शायद खुद ज़िंदगी भी थक कर रुक जाए।
विनोद खन्ना — तुम्हारी यह यात्रा कभी खत्म नहीं होगी।