डॉ. महेन्द्र यादव की पाती, थोड़ी जज़्बाती

(हिंदी दिवस पर इंदौर में हुए कवि सम्मेलन की शवयात्रा पर एक शोक व्यंग्य)
हिंदी दिवस पर इंदौर ने कविता नहीं सुनी,
इंदौर ने कविता को घसीटा।
एक एयर-कंडिशनर विहीन ऑडिटोरियम में,
जहाँ जनता को पास की जातियों में बाँटकर
“सम्मान” की भट्ठी में चमचागिरी पकाई गई,
वहाँ हिंदी दिवस नहीं,
हिंदी लज्जा दिवस मनाया गया।
कभी जिस शहर ने राहत इंदौरी को
पलकों पर बिठाया,
काका हाथरसी, सत्यनारायण सत्तन की फुलझड़ियों पर ठहाके लगाए,
हरिओम पंवार की राष्ट्रभक्ति में आंखें नम की,
और शैल चतुर्वेदी की चुटकियों को तालियों से सजाया,
उस इंदौर ने बीती रात
“एक महानुभाव” को
“युग पुरुष”, “युग दृष्टा”, और “देव कवि” तक कह डाला —
ऐसे शुद्ध शब्दद्रोह की इजाज़त
कविता कब से देने लगी?
यह कोई कवि सम्मेलन नहीं था,
यह “पोस्टर संस्कृति” की ज़बानी जीवंतता थी,
जहाँ कविता के बजाय
प्रायोजक के पाँव दबाए गए,
जहाँ मंच को प्रेस कॉन्फ्रेंस बना दिया गया,
जहाँ “ईश्वर तुल्य” कवि ने
स्वयं मोलभाव का ज़िक्र कर
मंच को बाजार में बदल दिया।
“हमें एसी नहीं मिला…”
“हमें फलाँ मंत्री ने टाइम पर रिसीव नहीं किया…”
“हमने फिर भी आकर उपकार किया…”
कृपया अगली बार रसीद भी मंच से बाँटिए,
और आयोजकों को रेट कार्ड के साथ सम्मान पत्र भी थमाइए —
कम से कम पारदर्शिता तो आएगी।
और जनता?
जनता तो कब की गायब है भाई,
वो अब कवि सम्मेलन में नहीं आती,
उसे पास की A, B, C कैटेगरी में
गुलामों की तरह छाँट दिया जाता है —
और फिर भी “नोट इन्वाइटेड!”
यह कैसा आयोजन था
जहाँ जनता को आने की छूट नहीं,
लेकिन आत्ममुग्धता का ठसका फ्री में परोसा गया?
वहीं कुछ अन्य कवि,
जो सचमुच कविता सुना रहे थे,
वो ख़ुद को मंच पर “एक के साथ पाँच फ्री” कहते सुने गए —
यह कविता नहीं,
कॉम्प्लेक्स में डूबी रचनाशीलता की आत्महत्या थी।
मगर एक सवाल—
अगर कोई मंच से ख़ुद को युग कवि, युग पुरुष, युग दृष्टा कहलवाता है,
तो फिर…
रामधारी सिंह दिनकर कौन थे?
हरिवंश राय बच्चन क्या थे?
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, गोपालदास ‘नीरज’, हरिशंकर परसाई, महादेवी वर्मा —
ये सब क्या थे?
इन्होंने न कभी मंच से अपने लिए जयकारा लगवाया,
न मंच को स्वर्ग बनाया,
फिर भी आज भी ये अमर हैं —
क्योंकि इन्होंने कविता को साधा,
कविता से प्रसिद्धि की भीख नहीं मांगी।
आज जो तथाकथित कवि,
पैसे लेकर मंच पर आकर
अपनी ही पूजा करवाता है,
वह इन महान साहित्यकारों की
परछाई बनने के भी लायक नहीं।
कविता, साहित्य और जनमानस के बीच
पहले ही सोशल मीडिया ने एक पर्दा डाल रखा है,
अब ऐसे ‘कथित भव्य आयोजनों’ ने
इस पर ताबूत की एक और कील ठोक दी है।
क्या अब कवि सम्मेलन
वाकई सिर्फ़ राजनीति के प्रचारक मंच बनेंगे?
क्या अब कविता
सिर्फ़ मुँहदेखी तारीफ़ों और
टेलीप्रॉम्पटर जैसी भाषाओं तक सीमित रह जाएगी?
सोचिए,
जब “देव तुल्य” लोग
मंच से फीस, डिस्काउंट, और होटल की व्यवस्था की शिकायतें करें,
तो कविता की आत्मा
किस कोने में रोती नहीं, चीत्कार करती होगी।
हिंदी दिवस के नाम पर
अगर ऐसा ही होता रहा,
तो अगले दशक में हमें
कविता के शव पर पुष्पांजलि देने की आदत डालनी पड़ेगी।
कवि सम्मेलन मर रहे हैं —
और उन्हें मारने वाले कोई और नहीं,
बल्कि वही हैं जो मंच पर बैठकर
ख़ुद को अमर घोषित कर रहे हैं।
—
✍️ डॉ. महेन्द्र यादव
(एक व्यथित कवि, एक जागरूक श्रोता, और अब… एक चुप्पी तोड़ता व्यंग्यकार)
