
डॉक्टर महेन्द्र यादव की पाती थोड़ी जज़्बाती
मेरठ की हालिया घटना ने एक ओर जहां रिश्तों की भयावहता को उजागर किया, वहीं दूसरी ओर इस पर बने मीम्स ने हमारी सामूहिक संवेदनहीनता की हदें दिखा दीं। सोशल मीडिया पर लोग इस दर्दनाक हत्याकांड को मनोरंजन का साधन बना रहे हैं। कोई पति पर हंस रहा है, कोई पत्नी पर तंज कस रहा है, और कोई इसे एक रोमांचक अपराध कथा की तरह देख रहा है।
लेकिन सवाल यह है—क्या हम अब इतने असंवेदनशील हो चुके हैं कि किसी की हत्या हमें सिर्फ़ मज़ाक का विषय लगने लगी है?
यह हत्या नहीं, सुनियोजित नरसंहार था
यह कोई साधारण अपराध नहीं था। एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या कर दी। फिर शव के टुकड़े किए, उसे सीमेंट में ढाल दिया ताकि उसकी पहचान भी खत्म हो जाए। यह किसी क्षणिक आवेग में उठाया गया कदम नहीं था। यह एक पूर्वनियोजित, निर्मम और भयावह कृत्य था।
सोचिए, जो व्यक्ति कभी उसके जीवन का हिस्सा था, जिसके साथ उसने सात फेरे लिए थे, जिसे उसने अपने परिवार का हिस्सा बनाया था, उसी व्यक्ति को उसने मिटा देने की साज़िश रची। केवल इसलिए कि वह अपने किसी और रिश्ते की राह में बाधा बन रहा था? क्या संबंधों की पवित्रता का गला घोंटकर, अपने विकृत मोह की वेदी पर किसी का रक्त बहाना अब सामान्य होता जा रहा है?
समाज की मृत होती संवेदनाएं
जिस अपराध पर हमें स्तब्ध रह जाना चाहिए था, जिस पर हमें चिंतन करना चाहिए था, उसी पर हम हंस रहे हैं। मीम्स बनाए जा रहे हैं, जोक्स फॉरवर्ड किए जा रहे हैं, और कुछ लोगों के लिए यह बस एक ट्रेंडिंग टॉपिक भर रह गया है।
कभी सोचा है, अगर यही हादसा आपके अपने घर में हो तो?
अगर यह मारा गया इंसान आपका भाई, बेटा, दोस्त या पिता होता, तब भी आप हंस पाते?
अगर किसी ने आपके किसी प्रियजन को इस तरह निर्ममता से मारकर मज़ाक बनाया होता, तब भी आप इसे हल्के में लेते?
मीडिया और सोशल मीडिया की भूमिका
आज क्राइम न्यूज़ सिर्फ़ ख़बर नहीं रह गई है, यह अब मनोरंजन का साधन बन चुकी है। टेलीविज़न चैनलों पर इसे सनसनीखेज बनाकर बेचा जाता है और सोशल मीडिया पर इसका उपहास किया जाता है।
समस्या केवल अपराधियों की नहीं है, बल्कि हमारी मानसिकता की भी है। हमें लगता है कि जब तक यह त्रासदी हमारे दरवाजे तक नहीं पहुंचती, तब तक यह केवल एक ‘स्टोरी’ भर है।
यह चेतावनी है, मज़ाक नहीं
जो लोग आज इस पर मज़ाक बना रहे हैं, वे यह सोच लें—कल यह आग उनके घर भी आ सकती है।
जिस समाज में रिश्तों का सम्मान खत्म हो रहा है, जहां प्यार की परिभाषा केवल भौतिक सुख तक सीमित रह गई है, वहां इस तरह की घटनाएं बढ़ती ही जाएंगी।
इसलिए, जब तक हमारे भीतर संवेदनशीलता बची है, उसे बनाए रखिए। अपराध पर हंसना नहीं, उसे समझना ज़रूरी है। अगर हम इसी राह पर चलते रहे, तो एक दिन हम खुद भी किसी मीम का हिस्सा बन सकते हैं।
संभलिए, सोचिए और जागरूक बनिए।
क्योंकि यह मज़ाक नहीं, एक चेतावनी है!