
डॉक्टर महेन्द्र यादव की पाती थोड़ी जज्बाती
वक़्त के साथ बहुत कुछ बदला, लेकिन सबसे बड़ा बदलाव वह था जिसने हमारी हंसी, हमारी बातें, हमारे रिश्ते, हमारी यादें… सब कुछ छीन लिया। वह बदलाव था—मोबाइल का आना। यह वही मोबाइल है जिसने न केवल हमारी दुनिया को बदला, बल्कि हमारे बचपन, हमारी जवानी और हमारी बुढ़ापे तक को अकेलेपन की अंधेरी गुफा में धकेल दिया।
बचपन का खो जाना
कभी वो दिन भी थे जब बच्चे आंगन में किलकारियाँ मारते थे, गोदी-गोदी खेलते थे, भाई-बहन आपस में लड़ते-झगड़ते, फिर एक दूसरे को मनाते। वो तुतलाकर बोलना, मिट्टी में खेलना, पेड़ों पर चढ़ना—ये सब बचपन की पहचान हुआ करती थी। मोहल्ले के हर बच्चे का एक ग्रुप होता था, जिसमें कोई बड़ा-छोटा नहीं, सब बराबर होते थे। शाम होते ही ‘लंगड़ी’, ‘गिल्ली-डंडा’, ‘छुपम-छुपी’ जैसे खेल शुरू हो जाते थे। एक-दूसरे के घर जाने, साथ बैठकर खाने-पीने और मासूमियत भरी शरारतों का दौर चलता था।
लेकिन आज?
अब बच्चे सिर्फ़ एक कमरे में, एक कोने में, मोबाइल की स्क्रीन में खोए रहते हैं। न दोस्ती रही, न भाईचारा। उंगलियां बस मोबाइल पर चलती रहती हैं, और आंखें—वे एक ऐसी दुनिया में खो जाती हैं, जहाँ रिश्ते नहीं, बस स्क्रीन की चकाचौंध है। अब खेल के मैदान नहीं, बस वर्चुअल गेम्स हैं, जहाँ असली हंसी की जगह नकली इमोजी भेजी जाती हैं।
युवाओं का रास्ता भटक जाना
युवावस्था कभी भविष्य संवारने की उम्र होती थी। इस उम्र में सपने देखे जाते थे और उन्हें पूरा करने के लिए संघर्ष किया जाता था। कभी लाइब्रेरी में किताबों से दोस्ती होती थी, कभी कॉम्पिटिशन की तैयारी में रातें कटती थीं। परिवार की जिम्मेदारियाँ समझी जाती थीं और युवाओं का समय खुद को निखारने में बीतता था।
लेकिन अब?
अब युवा रील्स बनाने में बिजी हैं, सोशल मीडिया पर लाइक्स और फॉलोअर्स बढ़ाने की होड़ में लगे हैं। किताबें छूट गईं, लक्ष्य धुंधला हो गए। अब कॉम्पिटिशन की तैयारी करने वाले कम और वर्चुअल दुनिया के सितारे बनने की चाह रखने वाले ज़्यादा हैं। दिन-रात मोबाइल स्क्रीन के सामने बैठकर, हर फ़ालतू ट्रेंड में हिस्सा लेने को ही सफलता समझने लगे हैं।
बुजुर्गों का अकेलापन
कभी घर के बुजुर्ग सबसे सम्मानित होते थे। दादा-दादी, नाना-नानी घर की धुरी होते थे। उनकी कहानियाँ, उनके अनुभव, उनकी बातें घर के हर सदस्य के लिए अनमोल होती थीं। नाती-पोते उनके चारों तरफ़ घेरा बनाकर बैठते थे, उनकी गोद में सिर रखकर कहानियाँ सुनते थे। बुजुर्गों का अकेलापन नहीं होता था क्योंकि परिवार उनका सबसे बड़ा सहारा था।
लेकिन अब?
अब वही बुजुर्ग एक कोने में बैठे रहते हैं। बेटे-बहू अपने मोबाइल में व्यस्त हैं, पोते-पोतियाँ अपने स्क्रीन में मस्त हैं। किसी के पास उनके पास बैठने का समय नहीं है, उनकी बातें सुनने का धैर्य नहीं है। घर में सब होते हुए भी वे अकेले हो गए हैं। मोबाइल ने सबको इतना बिजी कर दिया कि अब किसी के पास अपनों के लिए ही समय नहीं बचा।
मोबाइल ने हमें क्या दिया और क्या छीन लिया?
मोबाइल ने हमें दुनिया से जोड़ दिया, लेकिन अपनों से दूर कर दिया। मोबाइल ने हमें मनोरंजन दिया, लेकिन रिश्तों की गर्माहट छीन ली। मोबाइल ने हमें ज्ञान दिया, लेकिन संस्कारों से वंचित कर दिया। इस अंधाधुंध डिजिटल युग में हमने वह सब कुछ खो दिया जो कभी हमारी पहचान हुआ करता था।
अब भी समय है—सोचिए, जागिए, और संभलिए। वरना एक दिन आएगा जब घर में सब होंगे, पर फिर भी कोई किसी के पास नहीं होगा… और तब हमें अहसास होगा कि मोबाइल ने हमसे सब कुछ छीन लिया।