डॉ. महेन्द्र यादव की पाती
थोड़ी जज़्बाती
उदासी और एकाकीपन के बीच बासी दशहरा बीत गया। न जाने कब वो दिन खो गए जब दशहरे पर हर घर में रौनक हुआ करती थीं चहल कदमी हुआ करता थी दिन भर मेहमानों की आवाजाही हुआ करती थी , अब सब कुछ बदल गया है। पुरखों की परंपराएं, जो कभी दिलों में गर्माहट भर देती थीं, अब कहीं गुम हो गई हैं। सोना-पत्ती की जगह, जिसे कभी समृद्धि का प्रतीक माना जाता था, अब केवल यादों में बची है। बचपन में हम जिन पेड़ों की पत्तियों को सोना समझकर इकट्ठा करते थे, वो सोना अब कहीं खो गया है। रिश्तों की बस्ती, जो कभी इस त्यौहार के साथ बसती थी, अब सूनी हो चुकी है।
पहले, दशहरे के दिन रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों से मिलने का सिलसिला चलता था। आज, उन रिश्तों की जगह सोशल मीडिया के संदेशों ने ले ली है। संदेशों की भीड़ तो है, पर उस भीड़ में अपनापन कहीं खो गया है। घर पर किसी की दस्तक नहीं होती, दरवाजे पर खड़े होकर स्वागत करने की वह पुरानी परंपरा जैसे दम तोड़ चुकी है।
नए कपड़े, चमचमाते जूते, और सजे-संवरे बच्चों का अपने परिवार के साथ बाहर निकलने का जो दृश्य कभी देखा जाता था, वह अब नदारद है। दशहरे पर सजे-धजे लोग एक अलग ही गर्व और उत्साह के साथ अपने-अपने घरों से निकलते थे, लेकिन आज नए कपड़े बस तस्वीरों में सिमट गए हैं। सोशल मीडिया पर तस्वीरें डाल दी जाती हैं, लेकिन त्योहार का असली मजा कहीं गायब हो गया है। वो रुबाब, वो शान, अब बस यादों का हिस्सा बनकर रह गए हैं।
सबसे ज्यादा जो चीज़ दिल को चुभती है, वह है नाश्ते की वो चीनी की प्लेट, जिसमें मिठाई, केला, मिक्सचर और चवन्नी-अठन्नी की छोटी-छोटी भेंटें हुआ करती थीं। वो भेंटें केवल पैसों की नहीं, बल्कि प्यार और स्नेह की निशानी थीं। हर साल का वो दशहरा नाश्ते की मिठास और दिल को छू लेने वाली सरलता के साथ मनाया जाता था। आज न वो मिठास रही, न वो सादगी। बस यादें हैं, जो कभी-कभी दिल को कचोटने लगती हैं।
पहले दशहरे की तैयारियाँ एक दिन पहले से ही शुरू हो जाती थीं। घर-घर जाकर मिलने की उत्सुकता और मेहमाननवाज़ी की तैयारी में पूरे परिवार का सहयोग होता था। सुबह से शाम तक मिलने-जुलने का जो सिलसिला चलता था, वो अब जैसे थम सा गया है। घर अब खाली हैं, दरवाजे बंद रहते हैं। न वो चहल-पहल है, न हंसी-मजाक की आवाजें। सब कुछ सुनसान और सूनापन ओढ़े हुए है।
आज का दशहरा जैसे बस औपचारिकता बनकर रह गया है। न तो उसमें वो रौनक बची है, न रिश्तों की वो मिठास। पुरखों की परंपराएं, जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती थीं, अब धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। त्योहार, जो कभी एक सामाजिक उत्सव हुआ करता था, अब केवल व्यक्तिगत खुशी तक सिमट गया है।
यह दशहरे का बदलता स्वरूप हमें सोचने पर मजबूर करता है। क्या हम सचमुच त्यौहार मना रहे हैं, या केवल उसकी परछाई के साथ जी रहे हैं? हमें इस सन्नाटे से बाहर आकर, फिर से उन पुरानी परंपराओं को जीवित करना होगा, ताकि आने वाली पीढ़ियां भी इस खूबसूरत त्यौहार का असली आनंद ले सकें।