भोपाल। इंद्रा पब्लिशिंग हाउस और लैंडमार्क द बुक स्टोर की तरफ से ऑनलाइन कार्यक्रम “शनिवार की शाम लेखक के नाम” का आयोजन किया गया। इसके अंतर्गत लेखक व मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक “डॉ. देवेन्द्र दीपक” के साथ उनकी पुस्तक ‘सुषेण पर्व’ पर इंद्रा पब्लिशिंग हाउस की चीफ एडिटर दीपाली गुप्ता ने चर्चा की। पुस्तक का प्रकाशन इंद्रा पब्लिशिंग हाउस द्वारा किया गया है। लेखक डॉ. देवेन्द्र दीपक ने यह पुस्तक नाटक शैली में लिखी है। यह रामायण में लक्ष्मण की मूर्च्छा तोड़ने वाले सुषेण वैद्य पर आधारित है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने सुषेण वैद्य के बारे में बहुत ही सरल भाषा में प्रस्तुत किया है।
डॉ. देवेन्द्र दीपक ने अपने अंदाज़ में पुस्तक के बारे में बताया- सुषेण वैद्य रामकथा में अपने लिए बहुत छोटा-सा स्थान भले ही घेरते हों, किंतु उनकी यह संक्षिप्त-सी उपस्थिति इस कथानक को एक विशेष ऊर्जा से अभिमंडित करती है। राम-रावण युद्ध को लक्ष्मण की मूर्च्छा एक अनपेक्षित विवाद प्रसंग में तब्दील कर देती है। यहाँ सम्पूर्ण सेना सहित राम शोक संतृप्त हैं। युद्ध की भयंकरता के बीच यह जीवन के द्वंद्वों का न केवल समाहार है, बल्कि द्वंद्व मुक्ति का गहन वृतांत भी है। नाटक में युद्ध के कारकों का दृश्य-बोध, युद्ध की प्रतिहिंसा से उपजते क्रोध तथा जीवन व्यापिनी भावना के विष का शोध अपनी गहरी प्रतिकात्मक और समाजपरक निष्ठा के प्रकाश में प्रकट होता है।
यह लघु काव्य नाटक अपनी स्वल्प संवाही संरचना में बोध के अनेक स्तरों को स्पर्श करता है। इस नाटक में भले ही केंद्रीय चरित्र के रूप में सुषेण वैद्य के चरित्र की रचना की गई हो, किंतु हनुमान की भूमिका भी इसमें महत्वपूर्ण है। सुषेण एक ऐसे चिकित्सक हैं, जो लोकव्यापी वेदना को दूर करने के लिए राज्य द्वारा प्रदत्त राज वैद्य का पदक उतार देते हैं और कर्म के मर्म का धर्म उद्घाटित करते हैं। समकालीन जीवन में लोक को व्याधिमुक्त करने का संकल्प सुषेण की त्याग-वृत्ति की ओर जो संकेत करता है वह नाटककार की उस भारतीय दृष्टि को उजागर करता है, जिसमें “प्रार्णिनामार्ति नाशनं” ही चिकित्सक का परम धर्म है। सुषेण का रावण जैसे प्रबल पराक्रमी के विरुद्ध जाना उनकी निष्ठा का वृहत्तर वृत्त प्रस्तुत करना ही है। इसी निष्ठा के बल पर वे जीवन के अमृत तत्व के संरक्षक बनते हैं।
यह नाटक अपने दृश्य विधान और अपनी रंग-प्रस्तुति में जिस सहज सादगी को प्रस्तुत करता है। संवादों की अर्थगर्भिता और प्रभविष्णुता चरित्रों की आत्म-उजास को प्रकट करने में समर्थ है।
निश्चित ही यह नाटक अपनी संपूर्ण प्रस्तुति में भारतीय रंग-मंच की कतिपय जटिलताओं से मुक्त होने का संदेश वाहक बनेगा। प्रकाशन संस्था की ओर से यह प्रयास पाठकों और लेखकों के बीच संवाद स्थापित करने एवं पठन-पाठन की रुचि जागृत करने की दिशा में सार्थक साबित होगा