भारत के विमुक्त, खानाबदोश और अर्द्ध-खानाबदोश समुदाय दशकों से ऐसी परिस्थिति से गुजर रहे हैं, जहाँ हमेशा से ही उन्हें इस तरह दरकिनार किया जाता रहा है, जैसे कि वे देश का हिस्सा ही नहीं हैं। भारतीय समाज सबसे अधिक हाशिए पर रहने वाले इस उपेक्षित और वंचित समुदाय को कई नकारात्मक और आपराधिक गतिविधियों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। आधुनिक भारतीय समाज में भी उनके ऐतिहासिक दबावों के कारण भेदभाव किया जाता है। अगस्त 2019 में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वार्षिक जेल सांख्यिकी रिपोर्ट जारी की, जो कि उम्र, लिंग, धर्म और जाति जैसी प्रशासनिक श्रेणियों के लिए जेल के कैदियों पर जनसांख्यिकीय जानकारी प्रदान करती है। जेल की आबादी पर करीब से नज़र डालने से यह पता चलता है कि कुछ समुदायों, जैसे कि विमुक्त जनजाति या गैर-अधिसूचित जनजातियाँ का आपराधिक न्याय प्रणाली द्वारा उत्पीड़न का इतिहास रहा है, जिसे विशिष्ट कानूनों और कानूनी प्रावधानों के तराजू में आज भी तौला जा रहा है।
इन सब की शुरुआत सन् 1871 में हुई, जब कई प्रांतों में लगभग 200 समुदायों को आपराधिक समुदाय (डेवी 2013) करार करते हुए आपराधिक जनजाति अधिनियम (सीटीए) पारित किया गया था। औपनिवेशिक अधिकारियों ने इन समुदायों को जन्मजात अपराधी करार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। साथ ही यह फैसला सुनाया गया, कि खानाबदोश समुदायों को निकटतम पुलिस स्टेशन में अपना पंजीकरण कराकर लाइसेंस प्राप्त करना होगा और बिना अनुमति के अपने निर्धारित जिले से बाहर जाने की उन्हें अनुमति नहीं होगी। गोंडा के बरवार समुदाय ने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह किया। एक रिपोर्ट के अनुसार, गोंडा के बरवार, ललितपुर के सौंरहिया और एटा के अहेरिया को अपराधी करार किया गया था। तथ्य कहते हैं कि खानाबदोश समुदाय के इस ‘अपराधीकरण’ ने उन्हें कई क्रूर नियमों के अधीन कर दिया। बस्ती के पुलिस अधीक्षक ई जे डब्ल्यू बेलेयर्स द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट के अनुसार, अगस्त 1913 में खटीक समुदाय की 33% वयस्क पुरुष आबादी गहरी निगरानी में थी। अब, उन्हें एक चिह्नित स्थान पर रहने वाले अपराधियों के रूप में पहचान प्राप्त थी। वे हर दिन, हर घंटे, हर पल संदेह के घेरे में थे। पहले वे ग्रामीण परिदृश्य का हिस्सा थे, लेकिन अब उन पर ‘अपराधी’ का ठप्पा लगा दिया गया और बाकी समाज से अलग कर दिया गया।
सीटीए के बारे में सबसे बुरी बात यह थी कि इसने न सिर्फ इन समुदायों को अपराधियों के रूप में परिभाषित किया, बल्कि ग्रामीण और अर्द्ध-ग्रामीण क्षेत्रों को अपराधियों का रहवासी क्षेत्र घोषत कर दिया।
ये वही स्वतंत्रता सैनानी हैं, जो खुद के हाथों से बनाए चैनी-भाले लेकर खुद की जान की परवाह किए बिना अंग्रेजों से देश की रक्षा करते रहे। शायद किसी के मन में विचार आया हो कि भारत की स्वतंत्रता इन बेबस भटकते समुदायों का गौरव वापस लौटाएगी। लेकिन अफसोस! सूरज की किरणें अभी-भी उनके अंधेरे जीवन में प्रकाश लाने को तैयार नहीं थीं। अब तक, बाहरी लोग ही उन्हें क्रूरता की नज़र से देखते थे, लेकिन दुःख तब हुआ, जब आज़ादी के बाद, भारतवासी भी उन्हें अपराधियों की नज़र से देखने लगे। यह मेरे देश की विडंबना ही है कि आज़ादी के बाद भी उन्हें लेकर पुलिस के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया, और आदतन अपराधी अधिनियम 1952 ने उन परिस्थितियों को फिर एक बार जिंदा कर दिया, जो कलंकित खानाबदोश समुदाय बनकर रह गए। लंबे अरसे से ये समुदाय उन बुनियादी मानवाधिकारों को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिन पर भारत के प्रत्येक नागरिक का अधिकार है।
गैर-अधिसूचित जनजातियाँ, खानाबदोश जनजातियाँ और अर्द्ध घुमंतू जनजातियाँ भारत में सबसे वंचित और आर्थिक रूप से कमजोर समुदायों में से एक रही हैं। बेशक, सरकार ने उन्हें सशक्त बनाने के लिए योजनाओं की नींव रखी है, लेकिन अभी-भी एक लंबा सफर तय करना बाकि है। 15 फरवरी, 2022 को, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री, डॉ. वीरेंद्र कुमार ने गैर-अधिसूचित, घुमंतू और अर्द्ध घुमंतू समुदायों के कल्याण के लिए डीएनटी (सीड) के आर्थिक सशक्तिकरण की योजना शुरू की। यद्यपि, एक जिम्मेदार नागरिक और इंसान होने के नाते, क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम अपने साथी देशवासियों को उनकी उस पहचान को वापस पाने में मदद करें, जो संदेह, अधीनता और अन्याय के गर्त में खो गई है। क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि हम एक ‘अपराधी’ के रूप में निंदा किए जाने के इस सामाजिक कलंक से उन्हें बाहर निकालें? इस दिशा में पहला कदम इस समुदाय की उस पीड़ा को पहचानना है, जो अदृश्य है और आपराधिक न्याय प्रणाली के तहत उसे जड़ से समाप्त करना है, साथ ही देश के इन क्राँतिकारियों के जीवन में क्राँतिकारी बदलाव लाना है।