इंदौर / ग्वालियर-भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान इंदौर एवं राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्व विद्यालय द्वारा दिनांक 16-17 मई के दौरान संयुक्त रूप से आयोजित सोयाबीन पर अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना की 53 वीं वार्षिक समूह बैठक हाल ही में ग्वालियर में संपन्न हुई. इसके उद्घाटन के अवसर पर माननीय डॉ तिलक राज शर्मा, उप-महानिदेशक (फसल विज्ञान) भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद्, नई दिल्ली तथा डॉ अरविंद कुमार शुक्ला, माननीय कुलपति; डॉ के.एच. सिंह, निदेशक, भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान, इंदौर; सहायक महानिदेशक (तिलहन एवं दलहन) भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा डॉ संजय शर्मा, निदेशक, अनुसंधान सेवाए सहित विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अधिकारियों एवं अन्य अतिथियों की उपस्थिति में किया गया। इसमें सोयाबीन पर अखिल भारतीय समन्वित सोयाबीन अनुसंधान परियोजना (एआईसीआरपीएस) से जुड़े विभिन्न केंद्रों से संबंधित लगभग 100 वैज्ञानिकों ने इसमें भाग लिया तथा उनके द्वारा विगत वर्ष किए गए अनुसंधान कार्यक्रमों की समीक्षा की.
इस अवसर पर भारतीय सोयाबीन अनुसन्धान संस्थान क़े निदेशक डॉ के. एच. सिंग ने पिछले खरीफ सीजन के दौरान देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित विभिन्न केंद्रों पर की गई अनुसंधान गतिविधियों और परीक्षणों की रिपोर्ट प्रस्तुत की. उन्होंने वर्ष 2022 के सोया वैज्ञानिकों द्वारा विकसित उन्नत तकनीक, पद्धतियां एवम नवीनतम किस्मों के लिए सोयाबीन वैज्ञानिकों की सराहना की। साथ ही उन्होंने सोयाबीन के उत्पादन में हानि करने वाले कीट/रोग/सुखा/अतिवर्षा जैसे जैविक और अजैविक कारकों जैसी चुनौतियों का सामना करने के लिए किए जा रहे अनुसन्धान कार्यक्रमों पर प्रकाश डाला. उनके अनुसार भाकृअनुप-आईआईएसआर, इंदौर एवं देश के विभिन्न राज्यों में स्थापित केंद्रों द्वारा किए गये अनुसंधान परीक्षणों के संतोषजनक परिणाम प्राप्त होने की जानकारी दी. डॉ सिंह ने सोयाबीन अनुसंधान एवं विकास प्रणाली द्वारा विकसित नवीनतम तकनीकी शिफ़रसों की भी जानकारी दी. उनके अनुसार इस वार्षिक बैठक के दौरान सोयाबीन की कुल 7 नई क़िस्मों के नोटिफ़िकेशन की अनुशंसा की गई. इनमें मध्य क्षेत्र के लिए भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित तीन क़िस्में – एनआरसी 181 (कुनीट्ज़ ट्रिप्सिन इनहिबिटर मुक्त), एनआरसी 188 (मध्य क्षेत्र की प्रथम वेजिटेबल सोयाबीन), एनआरसी 165; जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर की दो क़िस्में जेएस 22-12 एवं जेएस 22-16; गोविंद वल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय पंतनगर के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित सोयाबीन क़िस्म पीएस 1670 को देश के उत्तरी मैदानी क्षेत्र के लिए और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर द्वारा विकसित क़िस्म आरएससी 11-35 देश के पूर्वी क्षेत्र के लिए पहचान की गई है.
अपने संक्षिप्त संबोधन में, डॉ संजीव गुप्ता, एडीजी (तिलहन और दलहन) ने देश की खाद्य तेल आवश्यकता की पूर्ति में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए सोयाबीन फसल से जुड़े वैज्ञानिकों की सराहना की. उन्होंने कहा कि हमें अपरम्परागत क्षेत्रो में सोयाबीन की खेती के अंतर्गत क्षेत्र बढ़ाने के लिए प्रयास तेज करने होंगे. ब्राजील एवं अर्जेंटीना जैसे सोयाबीन की खेती में अग्रेसर देशों में कम जुताई वाली तकनिकी (कंजर्वेशन एग्रीकल्चर) का उदहारण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने देश में इस बाबत अनुसन्धान एवं विकास कार्य किये जाने पर जोर दिया.
इस वार्षिक समूह बैठक के उद्घाटन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति माननीय डॉ अरविंद कुमार शुक्ला ने कहा कि सोयाबीन की खेती में लगभग 40 प्रतिशत व्यय विभिन्न सस्ता क्रियाओं के लिए आवश्यक मानव श्रम के रूप में आता है, जिसके लिये यांत्रिकीकरण की गति बढ़ाने अत्यंत आवश्यक है. उन्होंने यह भी कहा की ग्वालियर संभाग के क्षेत्रों में सोयाबीन की खेती को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालय द्वारा प्रयास किए जा रहे है, जिसके आने वाले समय में सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने की उम्मीद है.
कार्यक्रम के मुख्य अध्यक्ष, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के उपमहानिदेशक डॉ. टी आर शर्मा, ने सोयाबीन प्रजातियों की विविधता को बढ़ावा देने तथा अधिक से अधिक जलवायु-उपयुक्त, अधिक उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का कृषको में प्रचार-प्रसार करने पर जोर दिया. उन्होंने यह भी कहा की जैव तकनिकी पर आधारित (मार्कर असिस्टेड सिलेक्शन-जिनोम वाइड एसोसिएशन स्टडीज) तरीकों का उपयोग करते हुए स्पीड ब्रीडिंग की सहायता से कमसे-कम समय में सोयाबीन किस्मों के विकास की प्रक्रिया की गति बधाई जा सकती हैं.
इस कार्यशाला के उद्घाटन सत्र के बाद, फसल सुधार कार्यक्रम से संबंधित तकनीकी सत्र आयोजित किया गया, जिसमें पादप प्रजनकों ने देश भर में किए गए प्रारंभिक के साथ-साथ अग्रिम किस्मों के परीक्षणों के परिणाम प्रस्तुत किए हैं। इसी प्रकार पौध संरक्षण पर एक अन्य तकनीकी सत्र भी आयोजित किया गया जिसमें विभिन्न प्रतिरोध स्रोतों को शामिल करते हुए कीट-पीड़कों और रोगों के प्रबंधन के लिए विभिन्न दृष्टिकोणों पर प्रकाश डाला गया।