सुख और दुःख जीवन के दो पहिये है । सुख है कभी तो कभी दुःख है । उतार , चढ़ाव , ऊँच – नीच , कथनी – करनी आदि – आदि हमारे जीवन के साथ जुड़े हुए पहलू है । सुख दुःख का कर्ता और कोई नहीं है करने वाली हैं सिर्फ और सिर्फ हमारी आत्मा । सुख संध्या का लाल क्षितिज है जिसके पश्चात कर्म अनुसार जैसे हो जरुरी नहीं है की हो ही परन्तु क्षणिक सुख के बाद घनघोर अंधकार आता हैं और दुःख प्रातः काल की लालिमा हैं जिसके पश्चात प्रकाश ही प्रकाश हैं । सोच से ही सुख भी मिलें और सोच से ही दुखः भी मिलें । अगर सोच सही से सकारात्मक कार्य हो तो कर्म भी सुकर्म होंगे और अगर सोच हमारी नकारात्मक हो तो कर्म भी हमारे बुरे कर्म होंगे इसलिए हम सदैव अपने सोच व कर्म को सकारात्मक रखें। अग्नि चाहे दीपक की हो या चिराग की हो अथवा मोमबत्ती की लौ से हो इसके सिर्फ और सिर्फ दो ही कार्य है जलना और प्रकाश करना । यह हमारे अपने विवेक के ऊपर निर्भर करता है कि हम इसका कहाँ , कैसे , कब आदि उपयोग करें ।यही लौ मनुष्य के शरीर को शांत भी कर देती है । यही लौ अन्धकार को दूर कर सम्पूर्ण जगत को प्रकाशमय कर देती है । अतः यह हमारे चिन्तन की बात है वह उपयोग करने के ऊपर निर्भर है की उसी वस्तु से हम पुण्यार्जन कर सकते है तो थोड़ी चुक होने पर पापार्जन भी कर सकते है।
गरीब कुछ नहीं होते हुए भी मेहनत से दो वक्त की रोटी खाकर चैन की नींद से सोता है इसके विपरित अमीर सब कुछ होते हुए भी चैन की नींद नहीं सोता है । इसलिये आध्यात्मिक दृष्टि से
सुख और दुःख मानसिकता व कर्मों का खेल है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )