आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना । यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः ॥
*अष्टावक्र गीता*
इस श्लोक का अर्थ है कि, जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य भला किसमें है।
वेदांत की व्याख्या अनेक सिद्धहस्त आत्मसाक्षात्कारी गुरुओं द्वारा समय समय पर आमजन के लिए की गई जो ग्रंथों के रूप में आज भी हमारी मार्गदर्शक हैं। इन्हीं में से एक है, श्री अष्टावक्र की ‘अष्टावक्र संहिता’ जिसे हम ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से जानते हैं। जिस प्रकार भगवद्गीता कृष्णार्जुन संवाद है, उसी प्रकार अष्टावक्र गीता भी गुरु-शिष्य संवाद ही है, जो एक युवा आत्मसाक्षात्कारी गुरु व राज ऋषि आत्मसाक्षात्कारी राजा जनक के बीच आत्मज्ञान पर हुआ था।
गुरु अष्टावक्र को अपनी माँ के उदर में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था। गुरु अष्टावक्र के पिता का नाम कहोड था ,जो वेदशास्त्र के निष्णात विद्वान और सुप्रसिध्द वेदांताचार्य उद्दालक के परम प्रिय शिष्य थे। कहोड की वेद ज्ञान के प्रति उत्कट उत्कंठा देखकर उद्दालक भी चकित थे क्योंकि आजतक उन्होंने ऐसा शिष्य नहीं देखा था, जो वेदों के प्रत्येक शब्द को, उसके अर्थ को और उसकी मीमांसा को अत्यंत आतुरता पूर्वक हृदयंगम करता हो। कहोड ने शीघ्र ही वेदों का सांगोपांग अध्ययन पूर्ण कर लिया। शिष्य की योग्यता से प्रभावित गुरु ने अपनी पुत्री सुजाता जो स्वयं भी वेदशास्त्रों में निपुण, सर्वगुण संपन्न, विनयशील युवती थी से कर दिया। प्रतिदिन वेदों का अध्ययन-अध्यापन कर अत्यंत सुख से कहोड अपना दाम्पत्य जीवन बिताने लगे। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हुई। हर दिन रात को सोने से पहले वैदिक ऋचाओं का पठन करने का उन दोनों का नियम था। एक दिन वैदिक ऋचाओं का पठन करते समय अचानक सुजाता वेदों की निंदा करने लगी। कहोड अचंभित होकर उसकी तरफ देखने लगे वो भी अचंभित थीं कि, ऐसे शब्द मेरे मुंह से कैसे निकले ? एक अन्य दिन फिर जब वे वेद मंत्रों का उच्चारण करने लगे, तब वो गर्भस्थ शिशु मां के माध्यम से बोलने लगा, तात् वेदों का ज्ञान मिथ्या है। आत्मदर्शन ही परम सत्य है, अतः ग्रंथों में ज्ञान मत खोजो, ज्ञान तुम्हारे अंतर्मन में ही समाहित है, आत्मानुभूति करते ही परम ज्ञान की उपलब्धि हो जायेगी | इस बार कहोड को पता चल गया कि वेदों की निंदा करने का दुस्साहस सुजाता ने नहीं, उसके गर्भस्थ शिशु ने किया है, और वह वेदनिंदक सुजाता के उदर से जन्म ले रहा है ,यह जानकर वे विचलित हो गये और बोले रे मूढ़ ,तुझे क्या पता वेदों की महानता क्या है, वेदों की निंदा करने वाला तू, आठ अंगों से विकलांग पैदा होगा। और इस प्रकार गुरू अष्टावक्र, जो अपनी माँ के उदर में ही आत्मज्ञान को जान गये थे, उनका जन्म हुआ।
अष्टावक्र ने राजा जनक को आत्म ज्ञान दिया था। अपने गुरू अष्टावक्र से आत्मज्ञान पाकर राजा जनक कहते हैं, गुरुदेव! जगत मात्र आत्मा है। आत्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं, जिसने यह रहस्य को जान लिया वह निजप्रकाश से आलोकित होकर चतुर्दिक विराट आत्मा के दर्शन करता है।
इसी ज्ञान को प. पू श्री माताजी ने सहजयोग में इस प्रकार वर्णित किया है कि जब आपकी कुंडलिनी विशुद्धि चक्र को लांघ जाती है तब आपका व्यष्टी से समष्टी मे प्रवेश होता है , अर्थात आप भी विराट के अंग-प्रत्यंग बनते हो। आपको सामूहिक जागरूकता प्राप्त होती है। गुरु अष्टावक्र जी द्वारा जो ज्ञान राजा जनक को प्राप्त हुआ था, वही आत्म ज्ञान आज के भ्रांति वाले कलियुग में हम सहजयोग के माध्यम से अनुभूत कर सकते हैं। स्वयं को निजप्रकाश में परिवर्तित करने की इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं।
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